Sunday, 7 January 2018

किसान और किसानी





भारत भले ही कृषि प्रधान देश हो और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था कहलाता हो पर जब उत्तर से दक्षिण तक चाहे राजस्थान , छत्तीसगढ़ ,UP, महाराष्ट्र , तमिलनाडु कोई सा भी राज्य हो अगर हर जगह किसान सडको के रास्ते संघर्ष कर रहा है तो सोचने का विषय है कि दुसरो का पेट पालने के लिए उत्पादन करने वाले का खुद का जीवन इतना कष्टप्रद क्यों होता जा रहा है ?
अगर आंकड़ो की बात की जाए तो देश में जितने किसान 1951 में थे  2011 census के अनुसार उनमे 50 % की कमी आई है | GDP में कृषि का योगदान लगातार घटता जा रहा है | कृषि मजदूरों की संख्या दुगनी हो गयी है | कृषि छोड़कर किसान  शहरो में जाकर मजदूरी करना ज्यादा मुनासिब समझ रहे है | देश में 12000 किसान लगभग हर साल खुदखुशी कर लेते है | किसान अपनी आने वाली पीढियों को किसान के रूप में देखना नहीं चाहते और देश में किसानी करना सबसे अलाभप्रद तथा घाटे का सौदा बनता जा रहा है |
कृषि सुधारो को लेकर बनी स्वामीनाथन कमेटी की 2006 में आई रिपोर्ट ये कहती है कि :- किसानो को समर्थन मूल्य लागत का  50% होना चाहिए | किसानो की कमाई  कम से कम एक civil Servant के बराबर होनी चाहिए | कृषि  उत्पादों के लिए घरेलु तथा अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार होना चाहिए और भारत को एकल बाज़ार व्यवस्था की और बढ़ना चाहिए | किसान technology से लैस होना चाहिए |
स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट 2006 से सरकारी खजाने में धुल फांक रही है और देश अगड़े पिछड़े की राजनीत में व्यस्त है | इस स्थिथि में सड़क के सहारे संघर्ष के अलावा कौन सा रास्ता है जो किसानो को अपना हक़ दिलवा सकता है ?
आज किसानो को लेकर देश के सामने तीन महत्वपूर्ण प्रशन है :-
1.     मरता किसान
2.     घटता किसान
3.     न्यूनतम के लिए लड़ता किसान
मरता किसान :- जब जिन्दगी इतनी कठिन हो जाए कि जीना मुश्किल लगने लगे और मरना आसान रास्ता तो उस परिस्थिति की कल्पना कर पाना मुश्किल है पर किसान की किसी भी खुदखुशी का जिक्र  कर लीजिये अंततः कर्ज का बोझ , फसल बर्बादी , उचित दाम न मिलना अर्थात खुदखुशी का कारण आर्थिक ही होता है |आर्थिक रूप से किसानो को मजबूत करने के लिए दो स्तर पर प्रयास आवश्यक है पहला  उत्पादन में वृधि और दुसरा उत्पाद को बेचने के लिए बाज़ार की उचित व्यवस्था |
स्वामीनाथन रिपोर्ट के सुझाव के अनुसार हमें एकल बाज़ार व्यवस्था करनी होगी जहाँ किसान अपना सीधे उत्पादको तथा ग्राहकों तक पहुचाये और जो उत्पाद वो उत्पादित कर रहा है उसके लिए कौन से ग्राहक मौजूद है उसकी जानकारी technology के माध्यम से उसे उपलब्ध हो |
ऐसी एक शुरुआत E-NAAM नामक पोर्टल बना कर सरकार द्वारा की गयी थी पर न तो इसका बड़े स्तर पर प्रचार किया गया और न ही किसानो को प्रशिक्षित किया गया | फलत: इसका कोई लाभ किसानो को नहीं हुआ | होना तो ये चाहिए की हर राज्य में एक  एकल बाज़ार व्यवस्था हो ताकि वहाँ के छोटे बड़े किसान मजबूर ,असहज किसान के तर्ज पर नहीं बल्कि कुशल व्यापारी की तर्ज पर अपना माल बेच सके |
घटता किसान :- किसान की छवि कुछ इस तरह की गढ़ दी गयी है कि हर किसी के जहन में किसान नाम से एक मजबूर , गरीब ,शोषित व्यक्ति का चेहरा उभर ही आता है तो कैसे आप भावी पीढ़ी से किसानी करने की उम्मीद कर सकते है | जबकि किसान तो उद्योगों के लिए कच्चा माल उत्पादित करता है वह तो अपने आप में एक enterpenure होना चाहिए  परन्तु किसानी करना देश में passion ही नहीं है जो ज्यादा पढ़ जाता है वह किसानी करेगा नहीं तो जिसके पास कोई रास्ता बचता नहीं है वह अंत में किसान बनता है और किसानी करता है |
अतः भावी पीढ़ी में कृषि के प्रति रुझान उत्पन्न करना अत्यंत आवश्यक है ताकि TECHNOLOGY से युक्त , मैनेजमेंट में दक्ष अगली पीढ़ी इस कृषि प्रधान देश में कृषि को ऐसे BUSINESS MODEL के रूप में उभार सके जंहा असीम संभावनाए  और लाभ हो वरना आज की परिस्थितियो के अनुसार अगर देश में किसानो की संख्या में कमी आती रही तो भविष्य में देश के कृषि प्रधान होने की बात सवालिया घेरे में होगी |
 न्यूनतम के लिए लड़ता किसान :- किसान की आय कम से कम से कम इतनी तो होनी चाहिए कि वे अपने जीवन स्तर में सुधार कर सके , अपने बच्चों की शिक्षा , स्वास्थ्य , रहन-सहन आदि पर खर्च कर सके | स्वामीनाथन आयोग कि सिफारिश भी यही है की कम से कम आय एक civil servent  के बराबर होनी ही चाहिए | परन्तु वर्तमान में तो हर राज्य में किस्सान सडको पर अपना उत्पाद फ़ेंक फ़ेंक कर प्रदर्शन कर रहे है क्योकि उनको उत्पादों के दाम मिल नहीं पा रहे ,या उत्पादों को खरीदने के लिए ग्राहक नहीं मिल रहे या फिर वे सरकारी समर्थन मूल्य से असंतुष्ट है अर्थात सड़क पर किसान न्यूनतम के लिए लड़ता ,संघर्ष करता नजर आ रहा है |
वास्तव में आज किसनी एक आर्थिक संकट के दौर में है जहां किसान द्वारा उत्पादित उत्पादों का उपयोग कर बड़ी – बड़ी कंपनिया करोडो का मुनाफा कम जाती  है पर किसानो को उचित दाम  नहीं मिलता | किसानो की हालत खस्ता है पर बिचोलियों के वारे न्यारे है |
कल्पित हरित

Saturday, 23 December 2017

ट्रेन का जिन्दगी रुपी " सफर " (FICTION)




ट्रेंन की जनरल बोगी में अगर आपने सफ़र किया हो तो वास्तव में आज आप इस लेख का मर्म महसूस कर पायेंगे|  जीवन के सफ़र और ट्रेन की जनरल बोगी के सफ़र में कितनी समान्ताए है |
ट्रेन के सफ़र की शुरुआत वहां से होती है जब आप स्टेशन पर खड़े आप ट्रेन का इंतज़ार कर रहे होते है | और जीवन के सफ़र की शुरुआत वहां से होती है जब आप गर्भ से बहार आने का इंतज़ार कर रहे होते है |  ट्रेन का समय होने पर जैसे ही ट्रेन स्टेशन पर आती है  सबसे पहले शुरू होता है उसमे चढ़ने का संघर्ष ठीक उसी तरह जिस तरह गर्भ से बहार आने के लिए शिशु को संघर्ष करना पढता है |
एक बार सफलता पूर्वक डिब्बे  में चढ़ने के पशचात आप अकेले सबसे अनजान और ट्रेन चलना स्टार्ट कर देती है | जिस तरह जन्म के बाद जीवन चक्र स्टार्ट हो जाता है | अब आप आस पास खड़े लोगो से बातचीत करना प्रारंभ करते है | कहाँ से हो, कहाँ जाओगे , नाम आदि और फिर कुछ सामान्य चर्चाए (मुख्यत राजनीति पर ) और एक आधा घंटा इसी में बीत जाता है | ये ठीक वैसा ही है जैसे पैदा होने के पशचात रिश्तेदार , पहचानवाले , आपसे जुड़ते  चले जाते है  और जीवन का थोडा समय बाल्यकाल बड़ी आसानी से गुजर जाता है |
तत्पशचात आप महसूस करते है कि सफ़र काफी  लम्बा है | और सीट की आवश्यकता होगी ही वरना सफर कठिन हो जाएगा और आप सीट तलाश करने लगते है ये वह दौर है जब आप बाल्यकाल की समाप्ति पशचात भविष्य की योजनाए बनाने लगते है  और संघर्षरत हो जाते है |
जैसा कि आप ट्रेन में देखते है कि कई लोग ऐसे है जिन्हें बड़ी जल्दी सीट मिल जाती है , कइयो को काफी संघर्ष के बाद मिलती है | कई लोगो को अधिक सामान के कारण या फिर अपने साथ परिवार गणों के कारण वे स्वतंत्र रूप से सीट नहीं ढूंढ  पाते कहने का  मतलब ये है कि वे पहले परिवार के लोगो को बिठा दे और फिर खुद के लिए ऐसी सीट मिल जाये जंहा से सामान  की निगरानी व परिवार का भी ध्यान रखे |
बिल्कुल यही स्थितिया आपको जीवन में भी अपने आस पास देखने को मिलती है किसी को आसानी से लक्ष्य प्राप्त हो जाता है कइयो को काफी संघर्ष और समय के बाद प्राप्त होता है कइयो के साथ परिस्थितिया विपरीत होती है और उन्हें अपनी स्तिथि के अनुसार अपनी इच्छाओ  को दरकिनार करके ऐसा रास्ता या(सीट)  खोजनी पड़ती है जहां से पारिवारिक और अन्य सभी परिस्थितियों के मध्य संतुलन बनाया जा सके |
जिस प्रकार अगर व्यक्ति चाहता तो आसानी से ऊपर वाली सीट पर चढ़ कर बैठ सकता था पर सामान का ध्यान रखने व अपने परिवार को बैठाने आदि के चक्कर में कोई ऐसी सीट ढूंढ़ता है जंहा से परिवार और सामान दोनों का ध्यान रखा जा सके उसी प्रकार कई बार अपनी क्षमताओ को दरकिनार करके  भी मजबूरियों में परिस्थितिवश व्यक्ति को जीवन में अपनी  इच्छाओ का त्याग करना पढता है |
बहराल जो भी हो अंत में सभी कंही न कंही Adjust हो ही जाते है | किसी को कम सीट मिलती है तो किसी को ज्यादा जैसे कि किसी को धन दौलत खूब मिलती है और किसी को मितव्यता से गुजारा  करना पड़ता है |
ऐसा भी होता है कि सीट भले थोड़ी  कम मिली हो पर आसपास के लोग अच्छे  हो तो बात – चीत करते हुए सफ़र  में मजा आता है  वंही उसके विपरीत पूरी सीट मिलने के बावजूद भी यदि आस पड़ोस में बैठे व्यक्ति अपने आप में ही मस्त है और आप से कोई बातचीत नहीं हो रही तो भी सफ़र बोरियत भरा रहता है | ठीक वैसी ही स्थिति है ये जैसे  काफी सुविधाए होने के बावजूद जीवन में दोस्त ,प्यार आदि की कमी के कारण सुख नहीं मिल पाता और जीवन में खालीपन रहता है |
अब अगर आप देखंगे तो पायेंगे की ट्रेन मे चढ़ते ही आप जिन लोगो से मिले थे और शरुआती एक आधा घंटा बिताया था वो सभ सीट ढूंढने की जुगत में आगे पीछे अलग अलग हो गए जिस प्रकार जीवन की आपाधापी और संघर्ष में बचपन के मित्र यार छुट जाते है |
धीरे धीरे गाडी रफ़्तार पकड़ने लगती है कभी ब्रेक लगते है तो कभी झटके आते है  कभी रफ़्तार धीमी हो जाती है जैसे जीवन में अच्छा बुरा समय आता रहता है कभी परेशानिया(झटके)  भी आती है पर जीवन की गाडी निरंतर चलती रहती है |
अब ट्रेन अलग अलग स्टेशन पर रुकने लगती है तो कुछ लोग उतारते है और कुछ चढ़ते है आप पाते है की उतरने वालो में कई लोग वही है जो आपके साथ ही चढ़े थे पर उनका अंतिम  स्टेशन आप से पहले आ गया और उनका सफ़र पूर्ण हो गया जिस तरह हमारे कई साथी ,पहचान वाले हमें इस जीवन में छोड़कर चले जाते है |
धीरे-धीरे  आप भी अपने अंतिम स्टेशन की और बढ़ने लगते है और अंतिम स्टेशन पर जो आपको लेने आये होते है वो बहार खड़े होते है और ट्रेन से उतारते ही आपको अपने साथ लिए जाते है इसी प्रकार जीवन में आपका जब अंतिम स्टेशन “मृत्यु जंक्शन” आता है तो यमदूत आपके लिए वंहा खड़े होते है तथा आपको अपने साथ ले जाते है |
और आपके ट्रेन से उत्तर जाने के बाद भी ट्रेन आगे चली जाती है तथा उसी रफ़्तार से दौडती रहती है | ठीक वैसे ही जैसे आपके संसार से चले जाने के बाद भी संसार वैसे ही चलता रहता है|
“बस आपका सफ़र यंही ख़त्म हो जाता है |”

कल्पित हरित

Saturday, 16 December 2017

जातिगत राजनीति





राजनीति से बड़ा कोई धर्म नहीं और धर्म से बड़ी कोई राजनीति नहीं ”
राम मनोहोर लोहिया जी का कथन आज भी भारतीय राजनीत में सटीक बैठता है | भारतीय समाज तो धर्म से आगर बढ़कर  भी कई जातियों में बंटा है जहा हर जाति अपने तौर पर अपने लोगो के अधिकार के लिए संघर्षरत है और इनका ये संघर्ष किसी न किसी रूप में राजनैतिक रूप ले ही लेता है | सत्ता में मौजूद दल अपने फैसलों के माध्यम से तो विपक्ष संघर्ष के रास्ते जातिगत राजनीति को हवा देता है |
इन सभ के बीच मूल राजधर्म है जो कही पीछे छुट जाता है क्योकि राजधर्म तो आखरी पंक्ति में बैठे आखरी व्यक्ति तक पहुचने की बात करता है ,समानता की बात करता है ,संवैधानिक  अधिकार की बात करता है पर सच तो ये है कि राजधर्म के आधार पर चुनाव जीते नहीं जाते और चुनाव जितने के लिए जातिगत समीकरण चाहिए |
जातिगत संघर्ष में यदि आपके पास संख्या बल ज्यादा है तो आप अपनी असंवैधानिक मांगे भी मनवा सकते है जैसे पाटीदार जैसा समर्द्ध वर्ग भी आरक्षण मांग रहा है और पार्टिया उन्हें आरक्षण देने के लिए जुगाड़ में लगी है , 50%  से अधिक होने पर भी सरकार गुर्जरों को आरक्षण देने पर आमदा है | असल में इन जातिगत संघर्षो से प्राप्त लाभों का फायदा उन्हें हो ही नहीं पता जिन्हें वास्तव में इसकी जरुरत है तथा वे संपन्न लोग जिन्हें उन लाभों की आवश्यकता ही नहीं है जाति  के नाम पर लाभ ले लेते है
अलबत्ता आप आरक्षण किसी भी जाति को दे दीजिये उस जाति का समर्द्ध  वर्ग उसका फायदा उठा जाता है और जाति के गरीब वर्ग की स्तिथि वही जस की तस रह जाती है तो फिर चुनावी जीत हार के अलावा इन जातिगत संघर्षो का फायदा है क्या ?
अलग अलग जाति से इतर गरीब अपने आप में खुद एक बड़ा वर्ग है जिसको ख़ास जातियों में बांटा जा नहीं सकता और जात के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता जब तक देश की राजनीति असल मुद्दों से दूर हटकर जातियों के आस पास सिमटती रहेगी तब तक सर्वांगीण  विकास एक कोरी कल्पना रहेगा |
सर्वांगीण विकास से तात्पर्य है जिसे जिसकी आवश्यकता हो ,वो जिस लाभ का हकदार हो वो उसे मिले फिर चाहे उसकी जाति कोई भी क्यों न रही हो इससे जमीनी स्तर पर बदलाव दिखाई देने लगेंगे साथ ही सरकारों और जनप्रतिनिधियों को भी यह ध्यान रखना चाहिए की वे भले ही किसी जाति के वोटो के बल पर चुनकर क्यों न आई हो उसने अंततः शपथ तो संविधान की ही  ली ही जिसमे सभी के लिए समानता का जिक्र है |

कल्पित हरित