“जिसने
खजाना दिया है खोल,उसके बाजाओ ढ़ोल” 90
के दशक मे बनी कई फिल्मों मे under world का पैसा लगा था और
उसका प्रभाव उस दौर की फिल्मों मे देखने को भी मिलेगा जिसमे under world
don की छवि को महानायक के रूप मे महिमा मंडित करके दिखाया गया जो इतना प्रभावशाली और शक्तिशाली
होता की मुल्को की पुलिस भी उसके सामने कुछ नहीं थी और ये सब दिखाया जाना लाज़मी भी
है क्यूकी आखिरकार फिल्मे बनाने मे under world का ही पैसा
तो लगा हुआ है | ये उदहारण बताता है कि कैसे पैसे के बल पर
हित साधे जाते है पर यहाँ बात बॉलीवुड कि नहीं चुनावी तंत्र कि करने वाले है |
चुनावी लोकतन्त्र पैसे के उस तंत्र पर टीका है
जिसका स्त्रोत किसी को नहीं पता | राजनैतिक पार्टियो को चंदा
मिलता है जिसके बल पर वे चुनाव मैदान मे उतरती है और पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ती
भी है| ADR(association for democratic reform’s) की रिपोर्ट के अनुसार 6 नेशनल पार्टियो ने इलैक्शन
कमिशन को जानकारी दी है की 2017-18 मे जो चंदा उन्हे मिला उसके 60% का स्त्रोत
क्या है, ये पैसा किसने दिया इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं
है | राजनैतिक पार्टियो को यदि कोई 20000 से कम चंदा देता है
तो देने वाले का नाम बताना आवश्यक नहीं है | 2017-18 मे 694
करोड़ रूपये जो की कुल चंदे का 60% है ऐसे गुमनाम चंदे से आया |
यदि हम मान ले की सभी ने अधिकतम राशि 20000 दान दी
तो भी न्यूनतम 347000 दान देने वालो की आवश्यकता होगी और अगर इनमे 20000 से ज्यादा
दान देने वालो को भी मिला ले तो आंकड़ा कुछ लाख और बढ़ जाएगा | इतने लोग देश मे राजनैतिक पार्टियो को दान देते है ये मानना थोड़ा मुश्किल
है| फिर भी अगर इसे ही सत्य मान लिया जाये तो जो लोकतन्त्र
आपको एक वोट के जरिये बराबरी प्रदान करता
है वो इन पार्टियो के सत्ता मे आने पर इन्ही के इर्द गिर्ध सिमट कर रह जाता है| जिसके कारण चुने गए प्रतिनिधियों और शीर्ष स्तर के अधिकारियों का ऐसा
नेक्सस तैयार होता है जो भ्रष्टाचार का जनक होता है |
इसके अतिरिक्त चंद लोग जो चंदा देकर सत्ता तक दलो
को पहूंचाते है उनका सरकार मे हस्तशेप व कार्यो के लिए दबाव रहता है उन्हे contract
देना उनके सभी गलत सही कार्यो को राजनैतिक संरक्षण प्रदान करना
सत्ता की मजबूरी बन जाती है | यही मजबूरी सभी तरह के गलत
कार्यो चाहे फिर तस्करी हो , अवैध निर्माण हो , कालधन हो उसे रोकने वाली सरकारी मशीनरी को कमजोर बनाती है |
कुल मिलाकर सत्ता मे भ्रष्टाचार , कालधन और अनैतिक कार्यो की जड़े उसी चुनावी तंत्र मे है जो कि पैसे के बल
पर लड़े और जीते जाते है | वैसे तो चुनाव आयोग ने एक लोकसभा
क्षेत्र मे चुनावी खर्च कि सीमा 50 से 70 लाख तय कर रखी है|
ये सीमा असल चुनावी खर्च के सामने कई पीछे रह जाती है |
इस तरह के सिस्टम को रोकने के लिए आजकल चुनावो मे
स्टेट फंडिंग कि बाते भी हो रही है जिसमे चंदा लेने कि बजाय पार्टियो को उनके मत
प्रतिशत के अनुसार चुनाव लड़ने का खर्चा सरकारी खजाने से दिया जाये ताकि चुनाव मे
उपयोग होने वाला हवाला का पैसा , कालधन आदि पर रोक लग सके | इसके भी अपने लाभ व हानिया है जो आजकल बहस का विषय है |
खैर भारत मे चुनाव और चुनाव मे पैसा तो लगातार चलने
वाली प्रक्रिया है| अंत 1960 मे आई एक फिल्म
“कालाबाजार” के एक गीत कि पंक्तियो के साथ करते है|
“झन झन कि सुनो झंकार,
ये दुनिया है काला बाजार,
ये पैसा बोलता है , ये पैसा
बोलता है ”
कल्पित हरित