"कौन है ये लोग, कहां से आते है ये लोग" फिल्म जॉली एलएलबी का ये डॉयलाग आज उन
भारतीय राजनेताओं पर बिल्कुल सटीक बैठता है जो कि धर्म की राजनीति करने में इतने
मशगुल है कि उन्हे भगवान भी अब जातियों में बंटे नजर आने लगे है।
नजर
आयें भी क्यों न ये उनकी राजनीति को फायदा पहुंचाता है और प्यार व जंग मे सब जायज
है। परन्तु दिक्कत आपकी राजनीति से नहीं आपकी रणनीति से है। वे रणनीति जो बन्द
कमरों में तय की जाती है जिसमें धर्म के आधार पर जातियों के आधार पर, भडकाउ भाषणों के जरिए अपने दल के पक्ष
में माहौल तैयार करने की कोशिश की जाती है।
अगर
हिंदु वोट एकत्रित करना है तो राम जी का उपयोग होगा पर हिन्दु वर्ग भी तो कई
जातियों में बंटा है जिसमें दलितो में SC/ST एक्ट में परिवर्तन को लेकर गुस्सा है
तो इस नाराजगी को दूर करने के लिए बजरंग बली को दलित बता दिया जाए तो क्या बुराई
है? जो ब्रहाम्ण नहीं है उसे हिन्दुत्व की
व्याख्या करने का कोई हक नही है ये भी कह दिया जाए क्योकि उस वक्त तो आप ब्रहाम्ण
बहुल इलाके में सभा को सम्बोधित कर रहे है तो उन्हें रिझाना आवश्यक है। पूरी टीवी
डिबेट मे सामने वाले का केवल गोत्र ही बार-बार पूछा जाए और समाने वाला भी अपना
गोत्र सही या गलत ढूंढ लाये क्योंकि उसे भी तो अपने आप को असली हिंदु साबित जो
करना है। चुनावी घोषणपत्रों में परशुराम बोर्ड़ का जिक्र हो जाए , योजनाओ के फायदे लाभ के इतर व्यक्तिगत
हमले मे सबकी दिलचस्पी हो,
और चुनाव आते-आते धर्म संसद राम मंदिर
की हुंकार भरती नजर आए। राष्ट्रवाद को चुनावी पैंतरा बना दिया जाए और भारत माता
की जय कहने तक का उपयोग चुनावी सभा से इसलिए कर दिया जाए ताकि सामने वाले को
अराष्ट्रवादी बताया जा सके।
ये
कैसी रणनीति बनाई जा रही है जिसमें विकास प्राथमिकता में नही है तथा व्यक्तिगत
हमले व धर्म की राजनीति सर्वोपारि है। भविष्य के लिए नीति क्या है, भविष्य उज्ज्वल कैसे बनेगा, स्वास्थ्य और शिक्षा जिनमें समाजवादी
नितियां होनी चाहिए उनमें पूंजीवाद हावी है ये कैसे कम होगा। इन मुद्दों पर अगर
चुनावी चर्चा होगी तो किसी को कोई लाभ नही होगा क्योंकि अंतत: तो हमाम में सभी नंगे है इसलिए
धुव्रीकरण करना ही सही विकल्प है और ये भारतीय राजनीति का चरित्र सा बनता जा रहा
है।
वैसे
इस तरह की रणनीति के पीछे स्पष्ट कारण है कि ये फायदेमंद साबित होती है अर्थात इस
तरह के बेफालतू मुद्दो को भी जनता तवज्जो देती है तथा मिडिया इन्हे लेकर लंबे-लंबे
कार्यक्रमों के माध्यम से इस रणनीति को हवा देने का काम करता है मीडिया की अपनी TRP की मजबूरियां है जिसके चलते उसे वे सभ
प्राथमिकता से दिखाना पडता है जिसे देखने में दर्शकों का रूझान हो।
इस
तरह की राजनीति समाज के लिए और प्रगति के लिए घातक होती है इससे पीछा छुड़ाने के
तथा असल मुद्दो पर केंद्रित करने के लिए जरूरी है कि हमारे द्वारा ऐसी बातों पर
ध्यान न दिया जाए और मिडिया द्वारा इन्हे तवज्जो न दी जाए जिससे दलों को ये चाल
विफल होती नजर आए और उन्हें पता चले कि अब ये सभ आगे चलने की गुंजाइश नही है अब
उन्हें जनता से जुडे मुद्दो पर जवाबदेह होना पड़ेगा। अंत में सभी दलों के लिए कुछ
पंक्तियां याद आती है किः-
तू
इधर उधर की बात न कर………
यह
बता की काफिला क्यूं लूटा………
हमें
रहजनो से गिला नही…………
तेरी
रहबरी पर सवाल है ………….
कल्पित
हरित