Saturday, 23 December 2017

ट्रेन का जिन्दगी रुपी " सफर " (FICTION)




ट्रेंन की जनरल बोगी में अगर आपने सफ़र किया हो तो वास्तव में आज आप इस लेख का मर्म महसूस कर पायेंगे|  जीवन के सफ़र और ट्रेन की जनरल बोगी के सफ़र में कितनी समान्ताए है |
ट्रेन के सफ़र की शुरुआत वहां से होती है जब आप स्टेशन पर खड़े आप ट्रेन का इंतज़ार कर रहे होते है | और जीवन के सफ़र की शुरुआत वहां से होती है जब आप गर्भ से बहार आने का इंतज़ार कर रहे होते है |  ट्रेन का समय होने पर जैसे ही ट्रेन स्टेशन पर आती है  सबसे पहले शुरू होता है उसमे चढ़ने का संघर्ष ठीक उसी तरह जिस तरह गर्भ से बहार आने के लिए शिशु को संघर्ष करना पढता है |
एक बार सफलता पूर्वक डिब्बे  में चढ़ने के पशचात आप अकेले सबसे अनजान और ट्रेन चलना स्टार्ट कर देती है | जिस तरह जन्म के बाद जीवन चक्र स्टार्ट हो जाता है | अब आप आस पास खड़े लोगो से बातचीत करना प्रारंभ करते है | कहाँ से हो, कहाँ जाओगे , नाम आदि और फिर कुछ सामान्य चर्चाए (मुख्यत राजनीति पर ) और एक आधा घंटा इसी में बीत जाता है | ये ठीक वैसा ही है जैसे पैदा होने के पशचात रिश्तेदार , पहचानवाले , आपसे जुड़ते  चले जाते है  और जीवन का थोडा समय बाल्यकाल बड़ी आसानी से गुजर जाता है |
तत्पशचात आप महसूस करते है कि सफ़र काफी  लम्बा है | और सीट की आवश्यकता होगी ही वरना सफर कठिन हो जाएगा और आप सीट तलाश करने लगते है ये वह दौर है जब आप बाल्यकाल की समाप्ति पशचात भविष्य की योजनाए बनाने लगते है  और संघर्षरत हो जाते है |
जैसा कि आप ट्रेन में देखते है कि कई लोग ऐसे है जिन्हें बड़ी जल्दी सीट मिल जाती है , कइयो को काफी संघर्ष के बाद मिलती है | कई लोगो को अधिक सामान के कारण या फिर अपने साथ परिवार गणों के कारण वे स्वतंत्र रूप से सीट नहीं ढूंढ  पाते कहने का  मतलब ये है कि वे पहले परिवार के लोगो को बिठा दे और फिर खुद के लिए ऐसी सीट मिल जाये जंहा से सामान  की निगरानी व परिवार का भी ध्यान रखे |
बिल्कुल यही स्थितिया आपको जीवन में भी अपने आस पास देखने को मिलती है किसी को आसानी से लक्ष्य प्राप्त हो जाता है कइयो को काफी संघर्ष और समय के बाद प्राप्त होता है कइयो के साथ परिस्थितिया विपरीत होती है और उन्हें अपनी स्तिथि के अनुसार अपनी इच्छाओ  को दरकिनार करके ऐसा रास्ता या(सीट)  खोजनी पड़ती है जहां से पारिवारिक और अन्य सभी परिस्थितियों के मध्य संतुलन बनाया जा सके |
जिस प्रकार अगर व्यक्ति चाहता तो आसानी से ऊपर वाली सीट पर चढ़ कर बैठ सकता था पर सामान का ध्यान रखने व अपने परिवार को बैठाने आदि के चक्कर में कोई ऐसी सीट ढूंढ़ता है जंहा से परिवार और सामान दोनों का ध्यान रखा जा सके उसी प्रकार कई बार अपनी क्षमताओ को दरकिनार करके  भी मजबूरियों में परिस्थितिवश व्यक्ति को जीवन में अपनी  इच्छाओ का त्याग करना पढता है |
बहराल जो भी हो अंत में सभी कंही न कंही Adjust हो ही जाते है | किसी को कम सीट मिलती है तो किसी को ज्यादा जैसे कि किसी को धन दौलत खूब मिलती है और किसी को मितव्यता से गुजारा  करना पड़ता है |
ऐसा भी होता है कि सीट भले थोड़ी  कम मिली हो पर आसपास के लोग अच्छे  हो तो बात – चीत करते हुए सफ़र  में मजा आता है  वंही उसके विपरीत पूरी सीट मिलने के बावजूद भी यदि आस पड़ोस में बैठे व्यक्ति अपने आप में ही मस्त है और आप से कोई बातचीत नहीं हो रही तो भी सफ़र बोरियत भरा रहता है | ठीक वैसी ही स्थिति है ये जैसे  काफी सुविधाए होने के बावजूद जीवन में दोस्त ,प्यार आदि की कमी के कारण सुख नहीं मिल पाता और जीवन में खालीपन रहता है |
अब अगर आप देखंगे तो पायेंगे की ट्रेन मे चढ़ते ही आप जिन लोगो से मिले थे और शरुआती एक आधा घंटा बिताया था वो सभ सीट ढूंढने की जुगत में आगे पीछे अलग अलग हो गए जिस प्रकार जीवन की आपाधापी और संघर्ष में बचपन के मित्र यार छुट जाते है |
धीरे धीरे गाडी रफ़्तार पकड़ने लगती है कभी ब्रेक लगते है तो कभी झटके आते है  कभी रफ़्तार धीमी हो जाती है जैसे जीवन में अच्छा बुरा समय आता रहता है कभी परेशानिया(झटके)  भी आती है पर जीवन की गाडी निरंतर चलती रहती है |
अब ट्रेन अलग अलग स्टेशन पर रुकने लगती है तो कुछ लोग उतारते है और कुछ चढ़ते है आप पाते है की उतरने वालो में कई लोग वही है जो आपके साथ ही चढ़े थे पर उनका अंतिम  स्टेशन आप से पहले आ गया और उनका सफ़र पूर्ण हो गया जिस तरह हमारे कई साथी ,पहचान वाले हमें इस जीवन में छोड़कर चले जाते है |
धीरे-धीरे  आप भी अपने अंतिम स्टेशन की और बढ़ने लगते है और अंतिम स्टेशन पर जो आपको लेने आये होते है वो बहार खड़े होते है और ट्रेन से उतारते ही आपको अपने साथ लिए जाते है इसी प्रकार जीवन में आपका जब अंतिम स्टेशन “मृत्यु जंक्शन” आता है तो यमदूत आपके लिए वंहा खड़े होते है तथा आपको अपने साथ ले जाते है |
और आपके ट्रेन से उत्तर जाने के बाद भी ट्रेन आगे चली जाती है तथा उसी रफ़्तार से दौडती रहती है | ठीक वैसे ही जैसे आपके संसार से चले जाने के बाद भी संसार वैसे ही चलता रहता है|
“बस आपका सफ़र यंही ख़त्म हो जाता है |”

कल्पित हरित

Saturday, 16 December 2017

जातिगत राजनीति





राजनीति से बड़ा कोई धर्म नहीं और धर्म से बड़ी कोई राजनीति नहीं ”
राम मनोहोर लोहिया जी का कथन आज भी भारतीय राजनीत में सटीक बैठता है | भारतीय समाज तो धर्म से आगर बढ़कर  भी कई जातियों में बंटा है जहा हर जाति अपने तौर पर अपने लोगो के अधिकार के लिए संघर्षरत है और इनका ये संघर्ष किसी न किसी रूप में राजनैतिक रूप ले ही लेता है | सत्ता में मौजूद दल अपने फैसलों के माध्यम से तो विपक्ष संघर्ष के रास्ते जातिगत राजनीति को हवा देता है |
इन सभ के बीच मूल राजधर्म है जो कही पीछे छुट जाता है क्योकि राजधर्म तो आखरी पंक्ति में बैठे आखरी व्यक्ति तक पहुचने की बात करता है ,समानता की बात करता है ,संवैधानिक  अधिकार की बात करता है पर सच तो ये है कि राजधर्म के आधार पर चुनाव जीते नहीं जाते और चुनाव जितने के लिए जातिगत समीकरण चाहिए |
जातिगत संघर्ष में यदि आपके पास संख्या बल ज्यादा है तो आप अपनी असंवैधानिक मांगे भी मनवा सकते है जैसे पाटीदार जैसा समर्द्ध वर्ग भी आरक्षण मांग रहा है और पार्टिया उन्हें आरक्षण देने के लिए जुगाड़ में लगी है , 50%  से अधिक होने पर भी सरकार गुर्जरों को आरक्षण देने पर आमदा है | असल में इन जातिगत संघर्षो से प्राप्त लाभों का फायदा उन्हें हो ही नहीं पता जिन्हें वास्तव में इसकी जरुरत है तथा वे संपन्न लोग जिन्हें उन लाभों की आवश्यकता ही नहीं है जाति  के नाम पर लाभ ले लेते है
अलबत्ता आप आरक्षण किसी भी जाति को दे दीजिये उस जाति का समर्द्ध  वर्ग उसका फायदा उठा जाता है और जाति के गरीब वर्ग की स्तिथि वही जस की तस रह जाती है तो फिर चुनावी जीत हार के अलावा इन जातिगत संघर्षो का फायदा है क्या ?
अलग अलग जाति से इतर गरीब अपने आप में खुद एक बड़ा वर्ग है जिसको ख़ास जातियों में बांटा जा नहीं सकता और जात के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता जब तक देश की राजनीति असल मुद्दों से दूर हटकर जातियों के आस पास सिमटती रहेगी तब तक सर्वांगीण  विकास एक कोरी कल्पना रहेगा |
सर्वांगीण विकास से तात्पर्य है जिसे जिसकी आवश्यकता हो ,वो जिस लाभ का हकदार हो वो उसे मिले फिर चाहे उसकी जाति कोई भी क्यों न रही हो इससे जमीनी स्तर पर बदलाव दिखाई देने लगेंगे साथ ही सरकारों और जनप्रतिनिधियों को भी यह ध्यान रखना चाहिए की वे भले ही किसी जाति के वोटो के बल पर चुनकर क्यों न आई हो उसने अंततः शपथ तो संविधान की ही  ली ही जिसमे सभी के लिए समानता का जिक्र है |

कल्पित हरित

Wednesday, 22 November 2017

“अँधेरा घाना है”





गांधी जी का मानना था “लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही है ”  ये कथन अपने आप में ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में मजबूत विपक्ष और सशक्त मीडिया की भूमिका को परिलक्षित करता है पर क्या आप किसी विपक्ष से ये उम्मीद कर सकते है की वो निष्पक्ष हो सकता है  क्योकि उसकी निगाहे  सदैव सत्ता के दरवाजे तक पहुचने पर होती है  तो विपक्ष केवल उसे ही सच कहेगा जो उसके उसके राजनैतिक फायदे के लिए हो ।
एसे में लोकतंत्र की मजबूती के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष विपक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका है जो सही को सही और गलत को गलत निर्भीकता के साथ कह सके ताकि बहुमत वाली सत्ता बैखोफ होकर तानशाह  न बन जाए ।
मीडिया की भूमिका दबाव समूह की है जो जनता की आवाज़ को, परेशानियों को, दर्द को  और आवश्यकताओ को सत्ता के कानो तक पहुचाती है  और उनके हितो  में काम करने के लिए सत्ता  पर दबाव बनाती है   परन्तु सत्ता अपने आप में एक बहुत बड़ी ताकत है उसके पास प्रशाशन है जिसका उपयोग वह अपने खिलाफ उठने वाली आवज़ को दबाने के लिए करती है। अतः  स्वतंत्र,निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता ठीक वैसी है जैसे जंगल में रह कर शेर से बैर करना ।
अगर वर्तमान परस्थितियों की बात करे तो चाहे केंद्र हो या राज्य विपक्ष की स्थिति कमजोर है और सत्ता बहुमत के साथ अधिक ताकतवर जिसने पत्रकारिता के मार्ग को और भी कठिन बना दिया है
“माना  अँधेरा घाना है ,
पर दिया जलाना कंहा मना  है ”
अँधेरा भले कितना ही घाना क्यों न हो सत्ता चाहे कितनी भी बैखोफ होने की कोशिश करे पर जब तक निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता रूपी दिया जल रहा है तब तक उम्मीद की जा सकती है की जनहित में अन्याय और गलत के खिलाफ आवाज़ उठती रहेगी फिर चाहे वो नौकरशाही को बचाने के लिए काला कानून हो , बेरोजगारी का मुद्दा हो, GST  के नियम हो ,अर्थव्यवस्था की स्तिथि हो ,किसानो की आत्महत्या हो। चाहे सत्ता को इनसे कितना भी बुरा क्यों  न लगे।
वैसे भी इस देश में  पत्रकारिता का गौरवशाली इतिहास रहा है जिसमे ब्रिटिश काल से अब तक हर विपरीत परिस्थितियो में फिर चाहे वो imergency का दौर भी हो ,  कलम की ताकत से गलत और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद होती आई है  इसी का ताज़ा उदहारण है        “जब तक काला तब तक ताला”।
ये गौरवशाली परंपरा इसी तरह जारी रहेगी इसी उम्मीद के साथ ................................

Saturday, 7 October 2017

देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव





चुनाव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है परन्तु भारतीय परिपेक्ष में चुनाव केवल प्रक्रिया नहीं बल्कि उत्सव है ये उत्सव पुरे पांच साल देश में कही न कही चलता रहता है और ख़ास बात ये है कि  चुनाव किसी भी राज्य का हो उसके अक्स को महसूस पूरा देश करता है ।
चुनाव चाहे यूपी,बिहार ,दिल्ली,उतराखंड मणिपुर पंजाब ,हरियाणा ,राजस्थान कंही का भी हो चौपालों घरो नुक्कड़ो से लेकर राष्ट्रीय न्यूजो चैनल तक पर चुनावो से पूर्व के अनुमान और बाद के परिणामो पर चर्चा होती है अर्थात राजनैतिक रूप से आम जन में चेतना और सरकारी नीतियों के प्रति पक्ष और विपक्ष सोचने की स्थिथि  चुनाव के माध्यम से अनायास ही बन जाती है । इसी कारण केंद्र में सत्ता पक्ष राज्य चुनावों में सफलता को  अपनी प्रशासनिक और योजनाओ की सफलता से जोड़ता है तो विपक्ष इन चुनावों में सफलता को अपनी बढती लोकप्रियता से जोड़ता है।
अगर सीधे अर्थो में समझे तो ये निरंतर चुनाव देश में राजनैतिक शुन्यता नहीं आने देते। जिस कारण विपक्ष अपनी भूमिका अदा कर पाता है । वैसे भी लोकतंत्र में विपक्ष की अपनी भूमिका है उसका महत्वपूर्ण स्थान है क्योकि बिना विपक्ष की सत्ता तो लोकतांत्रिक तानाशाही के सामान है और विपक्ष ही है जो इस तानाशाही पर लगाम लगाने का कार्य करता है और हर बरस होने वाले चुनाव विपक्ष को अति सक्रिय रहने के लिए ,चुनावी जीत पाने के लिए प्रेरित करते है ।
इसी हर अगले चुनावी रण को जितने के लिए सत्ता उत्तम कार्य करती है ताकि उसी स्वीकार्यता बनी रहे और विपक्ष उसकी गलत नीतियों का विरोध करता है जनता भी अपनी आवाज़ सत्ता के समक्ष पहुचाने के लिए विपक्ष का सहारा लेती है । इन सभ से लोकतंत्र को मजबूती प्राप्त होती है ।
अगर देश में एक साथ चुनाव करा दिए जाते है तो मेरे ख्याल से एक चुनाव से दुसरे चुनाव के मध्य चार  साल के अन्दर राजनैतिक शुन्यता का माहौल  उत्पन होगा तथा सत्ता बिना रोक टोक तानाशाही व्यवहार करने से नहीं चुकेगी ।
हालाकि एक साथ चुनाव करवाने से आर्थिक लाभ अवशय होगा पर इसके लिए लोकतंत्र को कमजोर कर देना ठीक नहीं है

“कल्पित हरित”